सूरज को मचलते देखा,
दिन में चाँद निकलते देखा,
जब तुम सामने आए तो,
खुद को हमने पिघलते देखा!
यौवन की इक गागर हो तुम,
रूप का गहरा सागर हो तुम,
झिलमिल तारों की चादर हो तुम,
मेरे प्रेम का आदर हो तुम!
इक बार तो ब्रम्ह भी तुमको रचकर,
मन ही मन इतराया होगा,
इतनी सुन्दर रचना मेरी,
यह सोच के वो मुस्काया होगा!
उसके इस गर्व की मूरत को मैं अपना बनाना चाहता हो,
हे रूपसी तेरे प्रेम को अब मैं पाना चाहता हूँ!
Sunday, November 30, 2008
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