Sunday, September 28, 2008

शीर्षक रहित

छंदों की माला बिखर गयी,
शब्दों के मोती टूट गए,
जब याद तुम्हारी आई तो,
आँखों से अश्रु छूट गए!

जाने ये कैसा बंधन है,
जिसमे बंध मैं असहाए सा,
पास तुम्हारे होते भी,
दूर स्वयं को पाता हूँ!

जाने ये कैसी खुशबू है,
जो खींच मुझे ले आती है,
पर जो धागे टूट गए,
उन्ही में फंसा रह जाता हूँ!

पर फिर भी मेरा मन यह स्वीकार नहीं कर पता है,
के जिसे चाहा था तन मन से,
वही रेत सा फिसला जाता है!

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